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सोजे-ए-वतन--मुंशी प्रेमचंद


शोक का पुरस्कार मुंशी प्रेम चंद

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गर्मी का मौसम था। मैं हवा खाने शिमले गया हुआ था। मेहर सिंह भी मेरे साथ था। वहाँ मैं बीमार पड़ा। चेचक निकल आयी। तमाम जिस्म में फफोले पड़ गये। पीठ के बल चारपाई पर पड़ा रहता। उस वक़्त मेहर सिंह ने मेरे साथ जो-जो एहसान किए वह मुझे हमेशा याद रहेंगे। डाक्टरों की सख्त मनाही थी कि वह मेरे कमरे में न आवे। मगर मेहर सिंह आठों पहर मेरे ही पास बैठा रहता। मुझे खिलाता-पिलाता, उठाता-बिठाता। रात-रात भर चारपाई के क़रीब बैठकर जागते रहना मेहर सिंह ही का काम था। सगा भाई भी इससे ज्यादा सेवा नहीं कर सकता था। एक महीना गुज़र गया। मेरी हालत रोज़-ब-रोज़ बिगड़ती जाती थी। एक रोज़ मैंने डाक्टर को मेहर सिंह से कहते सुना कि ‘इनकी हालत नाजुक है। मुझे यकीन हो गया कि अब न बचूँगा, मगर मेहर सिंह कुछ ऐसी दृढ़ता से मेरी सेवा सुश्रुषा में लगा हुआ था जैसे वह मुझे ज़बर्दस्ती मौत के मुँह से बचा लेगा। एक रोज़ शाम के वक़्त मैं कमरे में लेटा हुआ था कि किसी के सिसकी लेने की आवाज आयी। वहाँ मेहर सिंह को छोडक़र और कोई न था। मैंने पूछा-मेहर सिंह, मेहर सिंह, तुम रोते हो।
मेहर सिंह ने ज़ब्त करके कहा-नहीं, रोऊँ क्यों, और मेरी तरफ़ बड़ी दर्द-भरी आँखों से देखा।
मैं-तुम्हारे सिसकने की आवाज़ आयी।
मेहर सिंह-वह कुछ बात न थी। घर की याद आ गयी थी।
मैं-सच बोलो।
मेहर सिंह की आँखें फिर डबडबा आयीं। उसने मेज पर से आईना उठाकर मेरे सामने रख दिया। हे नारायण! मैं खुद को पहचान न सका। चेहरा इतना ज़्यादा बदल गया था। रंगत बजाय सुर्ख के सियाह हो रही थी और चेचक के बदनुमा दागों ने सूरत बिगाड़ दी थी। अपनी यह बुरी हालत देखकर मुझसे भी जब्त न हो सका और आँखें डबडबा गयीं। वह सौन्दर्य जिस पर मुझे इतना गर्व था बिल्कुल विदा हो गया था।

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